7/12/2008

एक और प्रेमकथा ..रीप्ले ?

औरत कहती है , अगर मैं सब पेड़ पर्वत नदी मैदान लांघ लूँ , और मेरे पैर ऐसा करते पत्थर के हो जायें फिर ? फिर भी तुम .... आदमी जो ऐसे ललक से देखता था उसे , जैसे उसके शब्दों को बोलने के पहले ही सुन लेगा । भाँप लेगा , अपने अंदर पी जायेगा उनको फिर बेमत्त खुशी के नशे में चूर हो जायेगा , ऐसा सुनकर उसके अंदर उसका मन भसकने लगा । उसकी आत्मा निचुड़ने लगी । जैसे एक पल में सब राख हो गया ..सदी बीत गई । उसके कँधे हताश झुक गये । ज़रा आश्चर्य से उसने अपने अंदर झाँका और शर्मिन्दगी की लहर उसके अंदर उभचुभ होने लगी ।

औरत की आँखें सयानी हो गईं । उसने बहुत कोमलता से अपनी उँगलियाँ आदमी के चेहरे पर फिराई । उसके चेहरे की शर्मिन्दगी पोछी । औरत इस एक पल में आदमी से बहुत बड़ी हो गई । अपने दुख में आदमी से ऊपर हो गई । उसे आश्चर्य नहीं हुआ । इस आदमी का चेहरा जो हर वक्त उससे माँग करता था .. इस पेड़ पर्वत नदी मैदान को लाँघ आओ,उस आदमी का चेहरा अब भी वही था । बस उसके नक्श किसी और के उधार को वापस करते से लगने लगे ।

औरत जहाँ जाना चहती थी अपने हर धड़कन के सम पर , वहाँ पहुँचने के पहले ही ऐसी हूक रुलाई की वापस लौट आने की ,जैसे कलेजे पर चोट की तीखी लकीर खींचता हो जाने कौन । और जाने के पहले ही लौट आने की ऐसी उद्दाम कामना । औरत के अंदर बहुत सारी दुनिया वास करती है कुछ एक के बाद एक , कुछ साथ साथ , कुछ जो बीत चुकीं , कुछ जो रीत चुकी , कुछ आगत कुछ अनागत । उसका सफर हर रोज़ शुरु होता है । पर हर रोज़ इतनी दुनिया पैदल चलते , गुनते , फिर भी कितनी खाली जगह है जहाँ रंग भरा जा सकता है । औरत सोचती है , खूब सोचती है , कौन से रंग , कहाँ कहाँ क्या क्या , पत्ते पेड़ खरगोश हाथी । और आदमी ? पर आदमी तो उसके पत्थर पाँव से सहम गया । उसका सहमा रंग मेरी दुनिया को बदरंग करेगा । औरत कँधे सीधे किये , बिना कुछ कहे लौट पड़ती है ।

उसका लौटना आदमी चुप देखता है । उसकी उँगलियाँ हथेली में कैद हो जाती हैं । वो उँगलियाँ जो औरत को वापस बुला सकती थीं । ऐसा करके आदमी ने तयशुदा रास्ते में से एक से मुँह मोड़ लिया । पर उसका दिल अवसाद से धड़कता रहा बहुत देर तक । इतनी देर कि उसे लगने लगा कि छाती जम रही है और उसका शरीर बिखर रहा है । उसे औरत का मीठा चुंबन याद आता है ,उसकी उँगलियों का प्यार याद आता है , उसकी हँसी याद आती है , उसके बाँह के नीले निशान याद आते हैं , अपनी उँगलियों से उन्हें छूना याद आता है , अपनी उँगलियों से उन्हें बनाना याद आता है । बिना साथ हुये साथ होना याद आता है । और उसे लगता है इस साथ होने में ज़रूरी सिर्फ पेड़ पर्वत नदी मैदान लाँघना था , पत्थर के पाँव नहीं थे । अपने इस खोज पर उसे ऐसी बेतरह खुशी मिलती है , जैसे औचक उसने कोई चमकती चीज़ मुट्ठी में कैद की हो , आँखें चौंधिया जाय ऐसी खुशी । जैसे पूरा शरीर किसी सफेद रौशनी से नहा गया हो ।

औरत अब तक दूर रास्ते में जाती एक धब्बा, एक परछाई का अभास रह गई है । आदमी की आँखें उसे देखने के लिये अँधेरे से लड़ती हैं ।

कोई बच्चा अपने चोटिल घुटने को दाबे सुबकता घर जाता मुड़ कर , एक पल खून नहाये घुटने को भूलता , जिज्ञासा से अँधेरे में खड़े आदमी को देखता है । फिर आसमान देखता है । आसमान में कोई टूटा तारा या क्या पता कोई रात का उड़ता हवाई जहाज किन अनजान लोगों को किस अजाने लोक में ले जा रहा है ।

फिल्म देखता आदमी सिगरेट की अंतिम सुलगती टोंटी राखदानी में कुचलता है और एकबार फिर बटन दाबता है ..रीप्ले ..

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

फिल्म देखता आदमी सिगरेट की अंतिम सुलगती टोंटी राखदानी में कुचलता है और एकबार फिर बटन दाबता है ..रीप्ले ..
जिंदगी में मगर कोई फॉरवर्ड .रीवायिंड बटन नही होता ना? .........

आशीष कुमार 'अंशु' said...

अदभुत ...

शायदा said...

रीप्‍ले......

Arvind Mishra said...

जितना व्यक्त हुआ उससे भी अधिक अखीं कुछ अव्यक्त सा रह गया ...इसे ही साहित्य कहते हैं न ?

गौरव सोलंकी said...

और रीप्ले में भी बच्चा चोटिल ही है क्या?
...फिर रीप्ले रोक दीजिए|