2/09/2008

राग विलम्बित

आजकल पेट में दर्द रहता है , हमेशा मीठा मीठा । जैसे दर्द को तहाकर मोड़कर रख दिया हो शरीर के अंदर । फिर जब तब सारे तह खुल जाते हैं और फड़फड़ा कर दर्द का परचम लहराने लगता है । बचपन में एक बार पैरों पर फोड़े निकल आये थे पेमी कैप्सिस या ऐसा ही कुछ नाम था । एक एक करके सब से पस निकाला गया था । तब का दर्द सिर्फ एक शब्द की तरह याद में महफूज़ है । ज़्यादा शिद्दत से ईथर की महक याद है । उसके बाद याद नहीं कोई बड़ी दुख तकलीफ का सामना हुआ हो । रोबस्ट हेल्थ । लेकिन इधर एकाध साल से जोंक की तरह दर्द चिपक गया है । सोते जागते उठते बैठते जैसे दर्द का धीमा संगीत मद्धम मद्धम बजता हो । पुरानी प्यारी धुन जो यकबयक याद आ जाये और याद जो आ जाये तो मन ही मन लगातार वही बजता भी जाये । इतना की खुद आजिज हो जायें , अब बहुत हुआ बस ।

इकहत्तर साल की उमर हुई । उँगलियों के पोर अब सिकुड़ने लगे हैं , नाखून बड़े कड़े और हठीले हो गये हैं । पाँव जो एक वक्त कितने सुबुक नाज़ुक हुआ करते अब गठीले रूखे हुये , अँगूठे के पास की हड्डी बढ़ गई है । सब जैसे खत्म हो रहा है । बचा है सिर्फ जीवन का खुरचन । दर्द का संसार , घूमते नाचते छोटे होते जाते वृतों का गिना चुना घेरा । बदन फोड़ देने वाला दर्द नहीं । किसी मोलोतोव बम का औचक फूट जाना नहीं । कोई एक पल का विध्वंस नहीं । शनै शनै पानी का रिसना । साँझ का धीरे से उतरना । रुलाई की हिचकी का धीमे चुक जाना ।

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